के सफर से
लम्हों
की मंजिल तक
चलते
चला गया मैं
ढलते
ढल गया मैं
चन्द लम्हों
की यादों से
ढ़ेर सारी बातों से
बंधता चला गया मैं
जीतता गया मैं
हारता गया मैं
कभी खुद से
तो कभी मंजिल से
ये सफर था
मंजिल मान बैठा मैं
ये जीवन था
बंधन मान बैठा मैं ।
A view towards innocent life